THE MOTHER
Chapter 2
जगत् में जो कुछ भी होता है उसमें भगवान् अपनी शक्ति का आश्रय किये हुए, प्रत्येक कार्य के पीछे रहते हैं; पर यह उनका योगमाया से समावृत रहना है और इस अपरा प्रकृति में उनका जो कर्म होता है वह जीव के अहंकार के द्वारा होता है।
योग में भी भगवान् ही साधक हैं और साधना भी; ये उन्हींकी शक्ति हैं जो अपनी ज्योति, सामर्थ्य, ज्ञान, चैतन्य और आनंद से आधार (मन, प्राण, शरीर) के ऊपर अपना कर्म किये चलती हैं और जब यह आधार उनकी ओर उद्घाटित होता है तब वे ही अपनी इन दिव्य शक्तियों को उसमें भर देती हैं जिनसे साधना हो पाती है। परंतु जबतक निम्न प्रकृति सक्रिय है तबतक साधक के वैयक्तिक प्रयत्न की आवश्यकता रहती ही है।
यह वैयक्तिक प्रयत्न अभीप्सा, त्याग और समर्पण से युक्त त्रिविध अभ्यास है —
अभीप्सा — ऐसी जो अनिमिष, अविराम, अविच्छिन्न हो — मन में उसी का संकल्प, हृदय में उसी की खोज, प्राणों का वही अभिमत, देह की चेतना और प्रकृति को उसी की ओर उद्घाटित और सहज नम्य करने की दृढ़ इच्छा।
त्याग — अपरा प्रकृति की सब वृत्तियों का त्याग — मन की मान्यता, मत, अभिमत, अभ्यास, परिकल्पना, इन सबका ऐसा परित्याग कि जिससे रिक्त मन में वास्तविक ज्ञान को निर्बन्ध स्थान मिले — प्राण-प्रकृति की सारी वासना, कामना, लालसा, वेदना, आवेग, स्वार्थपरता, अहंकारिता, अहंमन्यता, लोलुपता, लुब्धता, ईर्ष्या, असूया, सत्य के प्रति विरुद्धाचार, इन सबका ऐसा त्याग कि स्थिर, उदार, समर्थ और समर्पित प्राण-सत्ता में वास्तविक शक्ति और आनंद की ऊपर से वर्षा हो — देह-प्रकृति की मूढ़ता, संशयग्रस्तता, अविश्वस्तता, अंधता, अनम्यता, क्षुद्रता, अलसता, परिवर्तन-विमुखता, तामसिकता, इन सबका ऐसा परिवर्जन कि ज्योति, शक्ति, आनंद की सत्स्थिरता निरन्तर अधिकाधिक दिव्य होनेवाली देह में सुप्रतिष्ठित हो ।
समर्पण — भगवान् और भगवती शक्ति के प्रति आत्मसमर्पण — हम जो कुछ हैं और जो कुछ हमारे पास है, जो-जो हमारी चेतना है, जो-जो हमारी चित्तवृत्ति और गतिविधि है, इन सबका समर्पण।
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समर्पण और आत्मनिवेदन में साधक जितना ही अग्रसर होगा उतना ही उसे इस बात का अनुभव होगा कि भागवती शक्ति ही साधना कर रही हैं, अपने-आपको उसके अंदर अधिकाधिक डाल रही हैं और उसमें दिव्य परा प्रकृति की स्वच्छन्दता और पूर्णता स्थापित कर रही हैं। जितना ही अधिक यह सचेत साधनक्रम उसके अपने प्रयास का स्थान अधिकृत कर लेता है उतनी ही द्रुत और वास्तविक उसकी साधनोन्नति होती है। परंतु इससे वैयक्तिक प्रयत्न की आवश्यकता का तबतक अंत नहीं होता जबतक समर्पण और आत्मनिवेदन सर्वांगतया नख से शिख तक विशुद्ध और संपूर्ण नहीं हो लेते।
यह बात ध्यान में रहे कि तामसिक भाव से किया हुआ समर्पण, जो समर्पण के विधानों का पालन करने से विमुख होता और सब कुछ करने के लिये भगवान् को ही पुकारता है, स्वयं कोई कष्ट उठाना और प्रयास करना नहीं चाहता — ऐसा समर्पण — केवल आत्मप्रवंचन है, इससे मुक्ति और सिद्धि नहीं प्राप्त होती।