Sri Aurobindo wrote this as a letter to Punamchand Shah, who at the time was involved in the collection of money for Sri Aurobindo’s work. In 1928 the letter was published as the fourth chapter of The Mother (full text is below).
THE MOTHER
Chapter 4
धन एक विश्वजनीन शक्ति का स्थूल चिह्न है। यह शक्ति भूलोक में प्रकट होकर प्राण और जड़ के क्षेत्रों में कार्य करती है। बाह्य जीवन की परिपूर्णता के लिये इसका होना अनिवार्य है। इसके मूल और इसके वास्तविक कर्म को देखते हुए यह शक्ति भगवान् की है। परंतु भगवान् की अन्यान्य शक्तियों के समान यह शक्ति भी यहां दूसरों को सौंप दी गयी है और इस कारण अधःप्रकृति के अज्ञानान्धकार में इसका अहंकार के काम में अपहरण हो सकता है अथवा असुरों के प्रभाव में आकर विकृत होकर यह उनके काम आ सकती है। मानव अहंकार और असुर जिन तीन शक्तियों से सबसे अधिक आकर्षित होते हैं और जो प्रायः अनधिकारियों के हाथों में पड़ जाती हैं तथा ये अनधिकारी जिनका दुरुपयोग ही करते हैं उन्हीं आधिपत्य, धन और काम, इन तीन शक्तियों में से एक शक्ति है धन। धन के चाहनेवाले या रखनेवाले धन के स्वामी तो क्या होते हैं, अधिकतर धन के दास ही होते हैं। धन जो बहुत काल से असुरों के हाथों में रहा और इसका जो बराबर दुरुपयोग हुआ, इससे इस पर दोष की एक ऐसी गहरी छाप लगी हुई है कि उससे मुश्किल से कोई बचता हो। इसीलिये प्रायः सभी आध्यात्मिक साधन-मार्गों में पूर्ण संयम, अनासक्ति और धन के सब बंधनों तथा प्रत्येक प्रकार की वैयक्तिक और अहंकारयुक्त वित्तेषणा के त्याग पर इतना जोर दिया जाता है। कुछ साधन-मार्ग तो धन-वैभव को पाप ही समझते हैं और यह बतलाते हैं कि दरिद्रता और अपरिग्रह का होना ही आध्यात्मिक स्थिति है। पर यह भूल है, इससे यह शक्ति दानवी शक्तियों के हाथों में ही रह जाती है। इसका भगवान् के लिये पुनरुद्धार करना, क्योंकि यह भगवान् का है, और भागवत जीवन के लिये भागवत भाव से इसका उपयोग करना साधक का विज्ञानमूलक मार्ग है।
धनशक्ति और उससे प्राप्त होनेवाले साधनों और पदार्थों से तुम्हें वैरागियों की तरह न तो भागना चाहिये, न इनकी कोई राजसी आसक्ति या इनके भोग में पड़े रहने की दासत्व-वृत्ति ही पोसनी चाहिये। धन को केवल यह समझो कि यह एक शक्ति है जिसे माता की सेवा के लिये जीतकर लौटा लाना और उन्हींकी सेवा में अर्पण करना है।
सारा धन भगवान् का है और यह जिन लोगों के हाथ में है वे उसके ट्रस्टी (रक्षक) हैं, मालिक नहीं। आज यह उनके पास है, कल कहीं और चला जा सकता है। जबतक यह इनके पास है तबतक ये इस ट्रस्ट का पालन कैसे करते हैं, किस भाव से करते हैं, किस बुद्धि से उसका उपयोग करते हैं और किस काम में करते हैं — इसी पर सब कुछ निर्भर करता है।
अपने लिये जब तुम धन का उपयोग करो तब जो कुछ तुम्हारे पास है, जो कुछ तुम्हें मिलता है या जो कुछ तुम ले आते हो उसे माता का समझो। स्वयं कुछ भी मत चाहो पर वे जो कुछ दें उसे स्वीकार करो और उसी काम में उसे लगाओ जिसके लिये वह तुम्हें दिया गया हो। नितांत निःस्वार्थ, सर्वथा न्यायनिष्ठ, ठीक-ठीक हिसाब रखनेवाले, तफसील की एक-एक बात का ध्यान रखनेवाले उत्तम ट्रस्टी बनो; सदा यह ध्यान रखो कि तुम जिस धन का उपयोग कर रहे हो वह उनका है, तुम्हारा नहीं। फिर, उनके लिये जो कुछ तुम्हें मिले उसे श्रद्धा के साथ उनके सामने रखो; अपने या और किसी के काम में उसे मत लगाओ।
कोई मनुष्य धनी है केवल इसीलिये उसके सामने सिर नीचा मत करो; उसके आडम्बर, शक्ति या प्रभाव के वशीभूत मत हो। माता के लिये जब तुम किसी से कुछ मांगो तो तुम्हें यह प्रतीत होना चाहिये कि माता ही तुम्हारे द्वारा अपनी वस्तु का किंचित् अंश मात्र मांग रही हैं और जिस व्यक्ति से इस तरह मांगा जायेगा वह इसका क्या जवाब देता है उसी से उसकी परीक्षा होगी।
यदि धन के दोष से तुम मुक्त हो पर साथ ही संन्यासी की तरह उससे भागते नहीं हो तो भागवत कर्म के लिये धन जय करने की बड़ी क्षमता तुम्हें प्राप्त होगी। मन का समत्व, किसी स्पृहा का न होना और जो कुछ तुम्हारे पास है और जो कुछ तुम्हें मिलता है और तुम्हारी जितनी भी उपार्जन-शक्ति है उसका भागवती शक्ति के चरणों में तथा उन्हींके कार्य में सर्वथा समर्पण, ये ही लक्षण हैं धनदोष से मुक्त होने के। धन के संबंध में या उसके व्यवहार में किसी प्रकार की मन की चंचलता, कोई स्पृहा, कोई कुण्ठा किसी-न-किसी दोष या बंधन का ही निश्चित लक्षण है।
इस विषय में उत्तम साधक वही है जो दरिद्रता में रहना आवश्यक होने पर वैसा रह सके और उसे किसी अभाव की कोई वेदना न हो या उसके अंदर भागवत चैतन्य के अबाध क्रीडन में कोई बाधा न पड़े; और वैसे ही यदि उसे भोग-विलास की सामग्री के बीच में रहना पड़े तो वह वैसा भी रह सके और कभी एक क्षण के लिये भी अपने धन-वैभव या भोग-विलास के साधनों की इच्छा या आसक्ति में न जा गिरे, असंयम का दास न हो अथवा धन रहने पर जैसी आदतें पड़ जाती हैं उनसे बेबस न हो जाये। भागवती इच्छा और भागवत आनंद ही उसका सर्वस्व है।
विज्ञानकृत सृष्टि में धनबल भागवती शक्ति को पुनः प्राप्त करा देना होगा और मां भगवती अपनी सृष्टि-दृष्टि की प्रेरणा से जो प्रकार निर्धारित करेंगी उसी प्रकार से उसका विनियोग एक नवीन दिव्यीकृत प्राणिक और भौतिक जीवन के सत्य सुंदर सुसंगत संघटन और सुव्यवस्थापन में करना होगा। पर पहले यह धनशक्ति उनके लिये जीतकर लौटा लानी होगी और इस विजय-संपादन में वे ही सबसे अधिक बलवान् होंगे जो अपनी प्रकृति के इस हिस्से में सुदृढ़, उदार और अहंकार-निर्मुक्त हैं, जो कोई प्रत्याशा नहीं करते, अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखते या किसी संकोच में नहीं पड़ते, जो परमा शक्ति के विशुद्ध वीर्यवान् यंत्र हैं।