Sri Aurobindo wrote this essay dealing with the four aspects of the Mother and related topics in the autumn of 1927 with the idea of publishing it in the booklet that eventually became The Mother. Referring to the essay in a letter to Punamchand Shah dated 3 October 1927, he wrote: “The ‘Four Aspects’ is half written and will be finished in a few days. It has been decided to publish these four writings with the February message in Calcutta.” The essay was published as the sixth chapter of The Mother in 1928.
I saw that whatever concentrated force there was in the church depended exclusively upon the faithful, the faith of the devotees.
६
माता की चार शक्तियां उनके चार प्रधान व्यक्त रूप हैं, उनके दिव्य स्वरूप के अंश और विग्रह। इनके द्वारा वे अपने सृष्ट जीव-जगत् पर कर्म किये चलती, विभित्र लोकों में अपने सृष्टि-कर्मों को सुव्यवस्थित और सुसमन्वित करती और अपनी सहस्रों शक्तियों का गति-विधान करती हैं। माता हैं एक ही, पर हमारे सामने वे नाना रूप से आविर्भूत होती हैं; उनकी अनेकानेक शक्तियां और मूर्तियां हैं, अनेकों उनके स्फुलिंग और विभूतियां हैं जिनके द्वारा उन्हींका कर्म ब्रह्माण्ड में साधित हुआ करता है। वे जो एका हैं जिन्हें माता कहकर हम पूजते हैं, भागवती चिच्छक्ति हैं, अखिल विश्व की अधिष्ठात्री देवी। एका होती हुई भी वे इतनी अनेकरूपा हैं कि उनकी गति को देखना समझना अति क्षिप्र मन या सर्वथा विनिर्मुक्त परम व्यापक बुद्धि के लिये भी असंभव है। माता भगवती परम पुरुष भगवान् की चिति और शक्ति हैं और अपनी यावतीय सृष्टि के बहुत ऊपर स्थित हैं। परंतु उनकी गति का कुछ आभास मिलता और अनुभव होता है उनके विग्रहों से तथा जिन देविमूर्तियों में आकर वे अपने सृष्ट जीवों के सामने प्रकट होना स्वीकार करती हैं उनसे, क्योंकि इनके गुण और कर्म अधिक निर्दिष्ट और मर्यादित होने के कारण अधिक बोधगम्य होते हैं।
जो चिन्मयी शक्ति हमें और इस अखिल ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं उनके साथ एकत्व से संस्पर्श का जब तुम्हें अनुभव होगा तब तुम स्वानुभव से यह जान सकोगे कि मातृसत्ता त्रिविध है। वे विश्वातीता, आद्या परा शक्ति हैं; इस रूप में वे सब लोकों के ऊपर हैं और वहां से वे परम पुरुष भगवान् के नित्य अव्यक्त रहस्य के साथ सृष्टि का संबंध जोड़े रहती हैं। फिर वे विश्वव्यापिनी, समष्टि-रूपिणी महाशक्ति हैं जो इन सब जीव-जगतों की सृष्टि करती और इन अनंत गतियों और शक्तियों को धारण करती, उनमें समाये रहती, उन्हें पुष्ट और परिचालित करती हैं। फिर हैं वे व्यष्टिरूपिणी; इस रूप में वे अपनी सत्ता के उन दो बृहत्तर स्वरूपों को मूर्तिमान करती हैं, उनकी गतिविधि हमें प्रतीत कराती और उन्हें हमारे निकट कर देती हैं; ये ही हैं मनुष्य और भागवती प्रकृति के बीच मध्यस्था शक्ति।
अद्वितीय आद्या पराशक्ति के रूप में माता अखिल लोकसमूह के ऊर्ध्व में स्थित हैं और परम पुरुष भगवान् को अपने सनातन चैतन्य में धारे हुई हैं। बस, उन्हीं में अशेष विशेषातीत शक्ति और अनिर्वचनीय सत्ता समायी हुई है; जिन सत्यों को व्यक्त करना होता है उनका समावेश या समाह्वान करके वे उन्हें परम रहस्य में उनकी अंतर्निहित अवस्था से अपने असीम चैतन्य के प्रकाश में उतार लाती हैं और उन्हें अपनी सर्वविजयिनी शक्ति और अपार प्राणधारा से एक-एक शक्ति और एक-एक शरीर इस विश्व में प्रदान करती हैं। पुरुषोत्तम इनके अंदर सदा ही अखण्डानन्त सच्चिदानन्दरूप से प्रकट हैं, इन्हींके द्वारा वे अखिल लोकसमूह में ईश्वर-शक्ति के द्वैताद्वैत चैतन्यरूप में और पुरुष-प्रकृति के द्वैत-तत्त्वरूप में प्रकट हुए हैं, इन्होंने ही उन्हें समस्त लोकों और भुवनों, देवताओं और उनकी शक्तियों के रूप में मूर्तिमान् किया और इन्हींके लिये वे ज्ञाताज्ञात लोकों में जहां जो कुछ है उस आकारवाले बने हैं। यह सारी लीला है इन्हींकी भगवान् पुरुषोत्तम के साथ; सनातन के जो रहस्य हैं, अनन्त के जो चमत्कार हैं, उन्हींका यह सारा प्रकटीकरण है। यह सब ये ही हैं; कारण सभी भागवती चिच्छक्ति के अंश और अच्छेद्य अंग हैं। यहां या कहीं भी कोई ऐसी बात नहीं हो सकती जो इनके द्वारा निर्दिष्ट और परम पुरुष भगवान् के द्वारा अनुमत न हो; केवल वही वस्तु रूपान्वित हो सकती है जिसे परम पुरुष की प्ररेणा से चालित होकर इन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा हो और अपनी सृष्टि के आनंद में बीजरूप में डालकर आकार प्रदान किया हो।
परम पुरुष से इनकी विश्वातीत पराचेतना के द्वारा जो-जो कुछ प्राप्त होता है, महाशक्ति विश्वजननी विश्वेश्वरी उसी की सृष्टि करती हैं और इस प्रकार जिन-जिन लोकों की सृष्टि करती हैं उनमें स्वयं भी अनुप्रविष्ट होती हैं; इनकी सत्ता इन लोकों में भागवत भाव और भागवत पोषणशक्ति और आनंद भर देती और उन्हींसे उन्हें बनाये रहती हैं — इन भागवत भाव, शक्ति और आनंद के बिना इन लोकों का अस्तित्व ही असंभव होता। जिसे हम लोग प्रकृति कहते हैं वह इन महाशक्ति का बाह्यतम कर्माङ्ग मात्र है; महाशक्ति स्वयं ही अपनी शक्तियों और कर्म-पद्धतियों का संचालन और उनका सामंजस्य विधान करती हैं, प्रकृति के द्वारा जो कर्म होते हैं वे उन्हींकी प्रेरणा से होते हैं और हम लोग जो कुछ देखते-सुनते, अनुभव करते हैं या जो कुछ जीवनधारा में लाया जा सकता है उसमें गुप्त अथवा प्रकट रूप से वे ही विचरती हैं। प्रत्येक लोक महाशक्ति की अखिल लोकसंस्थानलीला का एक-एक अभिनय है और महाशक्ति उन्हीं विश्वातीता परमा माता की ही विश्वभूता आत्मसत्ता और विश्वरूपा विश्वेश्वरी हैं। प्रत्येक लोक वह वस्तु है जिसे उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि में देखा और अपने सौंदर्यमय और शक्तिमय हृदय में धारण किया और अपने आनंद में निर्मित किया है।
परंतु उनकी सृष्टि के अनेक स्तर हैं, भागवती शक्ति के अनेक पादपीठ हैं। हम लोग जिस लोक के अंग हैं उसके शिखर पर अनंत सत्ता, चेतना, शक्ति और आनंद के अनेक लोक हैं और उन सबके ऊपर माता खड़ी हैं अनावृत शाश्वत शक्तिरूप में। वहां सब सत्ताएं एक अनिर्वचनीय पूर्णता और अव्यभिचारिणी एकता में वास और विहार करती हैं, क्योंकि वहां माता ही उन्हें अपनी गोद में सदा निरापद लिये रहती हैं। इन लोकों की अपेक्षा अधिक समीप हमारे सर्वाङ्गपूर्ण विज्ञानसृष्टि के लोक हैं जहां माता विज्ञानमयी महाशक्ति, सर्वज्ञ संकल्प और सर्वशक्तिमान् ज्ञानस्वरूपिणी भागवती शक्ति विराजती हैं जो अपने सिद्ध कर्मों में नित्य प्रकट है और प्रत्येक प्रक्रिया में स्वभावतः ही सिद्ध हैं। वहां के सब व्यापार सत्य के पदक्षेप हैं; वहां के सब जीव भगवज्योति के ही जीवभूत अंश, शक्तिसमूह और शरीर हैं; वहां के सब अनुभव प्रगाढ़, अबाध आनंद के ही समुद्र, सप्लव और तंरग हैं। पर यहां जहां हम लोग रहते हैं, अज्ञानमय जगत् हैं, मन प्राण देह के लोक, जो अपनी चेतना में अपने उद्गमस्थान से विच्छिन्न हो गये हैं और यह पृथ्वी इनका एक विशेष अर्थपूर्ण केंद्र है जिसका विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अनेक कठिनाइयां हैं — उन कठिनाइयों में से होकर तथा उन्हें दूर करते हुए लक्ष्य की ओर इसकी गति निर्धारित होती है। इसमें इतना अज्ञान और परस्पर-विरोध और प्रमाद भरा हुआ होने पर भी इसे धारण किये रहती हैं विश्वजननी; इसे भी इसके गुप्त लक्ष्य की ओर अग्रसर कराके ले जा रही हैं वे ही महाशक्ति।
अज्ञान के इस त्रिसर्ग की अधिष्ठात्री महाशक्तिरूपिणी माता अधिष्ठित हैं एक मध्यवर्ती लोक में जिसके ऊपर है वह विज्ञानमयी ज्योति, सत्यमय जीवन और सत्यात्मक सर्ग जिसे वहां से यहां नीचे ले आना है, और नीचे की ओर हैं चेतनाभेद से विभिन्न श्रेणियों में बंटे हुए ये चढ़ते और उतरते हुए चेतन क्षेत्र जो किसी दोहरी सीढ़ी के समान एक ओर से नीचे उतरकर जड़ के अज्ञान में परिसमाप्त हो गये हैं और दूसरी ओर से प्राण, हृदय और मन को प्रस्फुटित करके चढ़ गये हैं परमात्मा के अनन्तत्व में। माता वहां खड़ी हैं समस्त देवगणों के ऊपर, और वहां वे जो कुछ देखती, अनुभव करती और वर्षण करती हैं उसीसे इस ब्रह्माण्ड में और इस पार्थिव विकास में जो कुछ होगा उसका निर्देश कर देती हैं और उनके सब शक्तिसमूह और विग्रह अंदर से बाहर निकल आते हैं उनका कर्म करने के लिये और इनके तेज वे भेजती हैं इन अधोलोकों में शक्तिप्रयोग करने, शासन करने, युद्ध करने और विजयलाभ करने के लिये, यहां के युगचक्र निर्दिष्ट दिशा की ओर फेरने और घुमाने के लिये और समष्टिगत तथा व्यष्टिगत कर्मधाराओं को इष्ट मार्ग निर्दिष्ट करने के लिये। ये तेज ही वे अनेकानेक दिव्य रूप और विग्रह हैं जिनका अर्चन करके लोग इस रूप में विविध नामों से माता को सदा से पूजते आये हैं। परंतु इन शक्ति समूहों और इनके तेजों के द्वारा वे अपनी विभूतियों के मन और शरीर वैसे ही गढ़ा करती हैं जैसे वे ईश्वर की विभूतियों को गढ़ती हैं, इसलिए कि वे अपनी इन विभूतियों के द्वारा इस स्थूल भौतिक जगत् में मानवी चेतना के छद्मवेश में अपनी शक्ति, गुण और सत्ता की कोई आभा प्रकट कर दें। इस पार्थिव लीला के सब दृश्य किसी नाटक के समान उन्हीके द्वारा रचित, सज्जित और अभिनीत हैं, विश्वदेव इसमें उनके सहकारी हैं और वे स्वयं परदे के अंदर छिपी हुई अभिनेत्री हैं।
माता केवल ऊपर से ही विश्व का शासन नहीं करती बल्कि इस त्रिधाभिन्न निम्नतर जगत् में भी उतर आती हैं। उनकी निर्विशेष सत्ता के नाते, यहां की सब चीजें, अज्ञान की वृत्तियां तक भी स्वयं वे ही हैं और उन्हींके द्वारा सृष्ट हैं — यहां उनकी शक्ति अवश्य ही अवगुण्ठित है और सृष्ट पदार्थ अपने अपकृष्ट रूप में हैं, ये सब उन्हींकी प्रकृति-मूर्ति और प्रकृति-शक्ति हैं और इनके इस रूप में होने का कारण यह है कि अनंत की संभावनाओं में निहित किसी बात को कार्यान्वित करने के लिये, परम पुरुष की दुर्जेय अनुज्ञा से प्रवृत्त होकर वे यह महान् आत्मबलिदान करने को सम्मत हुई हैं और उसी लिये उन्होंने ये अज्ञान के अंतःकरण और रूप अपने ऊपर ओढ़ लिए हैं। परन्तु विशेष सत्ता के नाते भी, वे करुणावश नीचे उतर आयी हैं इस अंधकार में इसलिये कि इसे प्रकाश की ओर ले जायें, इस मिथ्यात्व और प्रमाद में इसलिये कि इसे सत्य में परिवर्तित कर दें, इस मृत्यु में इसलिए कि इसे अमर जीवन में परिणत कर दें, इस संसारक्लेश और इसके दुरपनेय दुःख और यंत्रणा में इसलिये कि इसे अपने गभीर आनंद के रूपांतरकारी परमोल्लास में पर्यवसित कर दें। प्रगाढ़, प्रभूत अपत्यस्नेहवश ही उन्होंने तम का यह आवरण ओढ़ लेना स्वीकार किया है, अज्ञान और अनृत की शक्तियों के आक्रमण और उनके प्रभावों का अनेकविध उत्पीड़न सह लेना दयावश मंजूर किया है, जन्म जो मृत्यु का ही दूसरा नाम है उसके तोरण में से होकर निकलना सह लिया है, सृष्टि के सब क्लेश, शोक और दुःखभोग अपने ऊपर उठा लिये हैं, क्योंकि ऐसा देख पड़ा कि इसी एकमात्र उपाय से यह सृष्टि प्रकाश, आनंद, सत्य और सनातन जीवन की ओर उन्नीत की जा सकेगी। यही वह महान् आत्मबलिदान है जिसे विशेष-विशेष प्रसंग में पुरुषज्ञ कहा गया है पर जो गंभीरतर अर्थ में प्रकृति का आत्मस्वाहाकार है, भगवती माता का निःशेष आत्मयज्ञ।