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At the Feet of The Mother

‘The Mother’ – Chapter 6 (e) Mahalakshmi (text in Hindi)

MAHALAKSHMI (महालक्ष्मी)

केवल ज्ञानवत्ता और शक्तिमत्ता ही परमा माता के प्रकटित वपु नहीं हैं; उनकी प्रकृति का और भी एक सूक्ष्मतर रहस्य है और उसके बिना ज्ञान और शक्ति अधूरे ही रह जाते हैं और पूर्णत्व भी उसके बिना पूर्ण नहीं होता। ज्ञान और शक्ति के ऊपर है शाश्वत सौंदर्य का परमाश्चर्य, भागवत समन्वय-निचय का एक ऐसा अगम्य रहस्य, अनिवार्य विश्वव्यापक रमणीयत्व और आकर्षण का एक ऐसा वशीकरण जो सब वस्तुओं, शक्तियों और सत्ताओं को एक जगह खींच लाता और पकड़ रखता है और उन्हें बलात् एक दूसरे से मिलाता और संयुक्त करता है जिसमें अंतर्हित आनंदविशेष अंतराल से ही अपना खेल खेले और उन्हें अपने छंद और रूप बनावे। यह महालक्ष्मी की शक्ति है और भागवती शक्ति का कोई रूप देहधारियों के हृदय के लिये इनसे अधिक आकर्षक नहीं है। महेश्वरी इतनी स्थिर-गंभीर, महीयसी और दूरवर्ती प्रतीत हो सकती हैं कि पार्थिव प्रकृति की क्षुद्रता उन तक पहुंचने और उन्हें धारण करने में समर्थ न हो सके, महाकाली भी इतनी द्रुतगामिनी और अट्टाल वासिनी भासित हो सकती हैं कि यह दुर्बल पार्थिव प्रकृति, उनका भीषण भार सह न सके; पर महालक्ष्मी की ओर सभी बड़े हर्ष और उल्लास के साथ दौड़ पड़ते हैं। कारण वे भगवान् की उन्मादन माधुर्य का जादू डालती हैं, उनके समीप होना गहरे आनंद में डूबना है और उन्हें अपने हृदय के अंदर अनुभव करना जीवन को आह्लादमय और कौतुकमय बना देना है; श्री, शोभा और रमणीय मृदुता उनसे वैसे ही प्रवाहित होती हैं जैसे सूर्य से प्रकाश, और जहाँ कहीं वे अपनी अनुपम दृष्टि गड़ाती हैं या अपना स्मितमाधुर्य टपकाती हैं वहीं मनुष्य वशीभूत होकर उनका दास बन जाता और अतल आनंद के तल में जा डूबता है। उनके करकमलों का स्पर्श अयस्कान्त का काम करता है और उनके अलौकिक कोमल प्रभाव से मन, प्राण, शरीर शुद्ध और परिमार्जित हो जाते हैं और जहां उनके पांव पड़ते हैं वहीं से बह निकलते हैं चित्तोन्मादन आनंद-सुरधुनि के स्रोत ।

तथापि इन मोहिनी शक्ति को प्रसन्न करना या उनकी सत्ता अपने अंदर बनाये रहना सहज नहीं है। अंतःकरण और अंतरात्मा का सामंजस्य और सौंदर्य, चिंता और अनुभूति का सामंजस्य और सौंदर्य, प्रत्येक बाह्य कर्म और गतिविधि में सामंजस्य और सौंदर्य, जीवन और जीवन के चतुःपार्श्व का सामंजस्य और सौंदर्य — यह है महालक्ष्मी को प्रसन्न करने का अनुष्ठान। निगूढ़ जगदानन्द के छंदों के साथ जहां जीवन मिल जाता है, जहां सौंदर्यमय समग्र की पुकार पर चित्त दौड़ पड़ता है, जहां स्वरों का मेल है, ऐक्य है और अनेकानेक जीवनों का सानन्द प्रवाह भगवान् की ओर मुड़ा हुआ है वहां, वैसी ही स्थिति में, रहना वे मंजूर करती हैं। पर जो कुछ कुत्सित, गर्हित, घृणित है, जो कुछ निस्तेज, मलिन और अशुचि है, जो निर्दय और दुर्मुख है, वह उनके आगमन का प्रतिरोधी है। जहां प्रेम नहीं, सौंदर्य नहीं और इनके होने की गुंजायश भी नहीं, वहां वे नहीं आया करतीं; जहां प्रेम और सौंदर्य घृणित पदार्थों से मिलकर कुरूप बन जाते हैं वहां से वे तुरत अपना मुंह फेर लेती और बिदा होती हैं अथवा वहां वे अपना वैभव दान करने को उत्सुक नहीं होतीं। यदि वे अपने-आपको ऐसे मनुष्यों के हृदयों में अवस्थित देखती हैं जो स्वार्थपरता, ईर्ष्या, द्वेष, असूया और कलह से घिरे हुए हैं, यदि विश्वासघातकता, लोभान्धता और कृतघ्नता मिली हुई है देवोद्दिष्ट अर्घ्यपात्र में, यदि तृष्णा की ग्राम्यता और अपवित्र काम भक्ति को अपमानित कर रहे हैं तो ऐसे हृदयों में दयामयी सौंदर्यमयी भगवती ठहर नहीं सकतीं। एक दैवी घृणा से उनका चित्त उचाट हो जाता और वे वहां से चल देती हैं, क्योंकि वे ऐसी नहीं हैं जो अपने ठहरने के लिये आग्रह करें या झगड़ती बैठी रहें; अथवा वे यह कर सकती हैं कि वहीं अंतर्धान होकर यह प्रतीक्षा करें कि इस पात्र में से यह कटु विषाक्त पैशाचिक दुर्भाव परित्यक्त होकर नष्ट हो जाये और तब इसमें अपना सुखद प्रभाव फिर से नवस्थापित किया जाये। संन्यासियों की-सी रिक्तता और रुक्षता उन्हें पसंद नहीं, न हृदय के गभीरतर उमंगों का दमन और न अंतरात्मा के और जीवन के सौंदर्यसाधक अंशों का कठोर उच्छेदन ही उन्हें सुहाता है। कारण प्रेम और सौंदर्य के द्वारा ही वे मनुष्यों को भगवत्पाश में बांधती हैं। उनके परम सृष्टिकर्म में जीवन स्वर्गीय कला का एक सर्वांगसुन्दर कारुशिल्प बनता और सारा जगत् एक दिव्य आनंद का काव्य बन जाता है; जगत् की सारी संपदा एक जगह लायी जाती और एक महत्तम व्यवस्थाक्रम में एकत्र प्रयुक्त होती है और उनकी अंतर्ज्ञानदृष्टि की साक्षात् एकत्वदर्शिता तथा उनके प्राणस्पर्श से अति सामान्य साधारण वस्तु भी अलौकिक बन जाती है। हृदय में उन्हें बैठाने से वे ज्ञान को समुन्नत आश्चर्य-शिखर पर पहुंचा देती हैं और समस्त ज्ञान के परे जो परमानन्द है उसके गुप्त रहस्य खोल-खोलकर दिखाती हैं, भक्ति को भगवान् की वेगवती आकर्षणशक्ति से लाकर मिला देती हैं, बलवत्ता और शक्तिमत्ता को वह छन्द सिखा देती हैं जिससे उनके कर्मों की सामर्थ्य सुसंगत और सुपरिमित बनी रहे और संसिद्धि पर वह मोहिनी डाल देती हैं कि जिससे वह चिरस्थायिनी हो जाती है।

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