MAHASARASWATI (महासरस्वती)
महासरस्वती माता की कर्मशक्ति और सिद्धि और सुव्यवस्था में उनकी प्राणशक्ति हैं। शक्ति-चतुष्टय में ये सबसे कनिष्ठा और कर्म-संपादन में सबसे निपुण तथा स्थूल प्रकृति के लिये सबसे समीप हैं: महेश्वरी विश्वशक्तियों की बृहती धाराएं मात्र आंकती हैं, महाकाली उनकी गति और गति के वेग को आगे बढ़ाती हैं, महालक्ष्मी उनके छंद और मान उद्घाटित करती हैं, परंतु महासरस्वती उनके संपूर्ण संविधान और प्रयोग की एक-एक बात, एक-एक अंग के परस्पर-संबंध-प्रस्थापन और सब शक्तियों के सार्थक संयोजन तथा निश्चितार्थ की संप्राप्ति और संपूर्ण के विषय में अव्यर्थ यथायोग्य अनुष्ठान का पर्यवेक्षण करती हैं। सब विद्या, कला और कौशल महासरस्वती के साम्राज्यान्तर्गत हैं। सिद्ध कर्मी का अंतरंग और यथावत् ज्ञान, सूक्ष्म बोध और धैर्य, अंतर्ज्ञानी मन और सचेत हाथ और यथावत् गुणदोष दर्शी दृष्टि की प्रमादरहित सुनिश्चितता, सिद्धकर्मी के ये सब लक्षण महासरस्वती की प्रकृति में सदा ही अवस्थित रहते हैं और जिन पर वे अनुग्रह करती हैं उन्हें वे यह सारी संपदा प्रदान कर सकती हैं। ये शक्ति ही समस्त लोकों की समर्थ, अक्लान्त, सावधान, सुनिपुण निर्माणकर्त्री, व्यवस्थापिका, शासिका, प्रयोगज्ञानवती, कलावती और लोकविभागकर्त्री हैं। जब वे प्रकृति के रूपांतर और नवनिर्माण का कार्य अपने हाथ में लेती हैं तब उनका कार्य बड़ा ही श्रमसाध्य और बड़ी बारीकी के साथ होता है, हमारे अधीर चित्त को प्रायः बड़ा धीमा और जाने कब समाप्त होनेवाला-सा प्रतीत होता है, पर वह कार्य होता है अविराम, सर्वाङ्गीण और त्रुटिरहित। कारण कर्ममात्र में उनका संकल्प सुदक्ष, अतंद्रित और अश्रान्त होता है; वे हमारे ऊपर झुकी हुई हमें घेरे हुई रहती और जरा-जरा-सी एक-एक बात देखती और उसे स्पर्श करती हैं, बारीक से बारीक दोष, छिद्र, गांठ या न्यूनता को ढूंढ़ निकालती हैं और जो कुछ अबतक किया जा चुका है और जो कुछ आगे करना बाकी है उसे ठीक-ठीक समझती-बूझती और नापती-जोखती हैं। कोई भी चीज इतनी छोटी या तुच्छ नहीं है जो उनकी दृष्टि के सामने आने योग्य न हो, ऐसी भी कोई चीज नहीं है, चाहे वह कितनी ही झीनी, छद्मयुक्त या गुप्त हो, जो उनकी दृष्टि से बच सके। गढ़ना और फिर गढ़ना प्रत्येक अंग को, यही उनका सतत आयास है — जबतक वह अंग अपने सद्रूप को न प्राप्त हो, समग्र के अंदर अपने स्वस्थान में आकर न बैठ जाये और अपना नियत कर्म पूरा न करे। इस सतत अध्यवसाय के पूर्ण संघटन और पुनःसंघटन के कार्य में सब प्रयोजनों पर तथा जिस प्रयोजन की जिस प्रकार पूर्ति होगी उन सब प्रकारों पर एक साथ उनकी दृष्टि रहती है; वे अपनी अंतर्ज्ञानदृष्टि से यह जानती हैं कि कहां किस वस्तु को ग्रहण और किस वस्तु को वर्जन करना होगा और इस तरह सिद्धता के साथ वे योग्य पात्र, योग्य काल, योग्य अवस्था और योग्य प्रक्रिया का निर्देश करती हैं। अयत्न, अवहेलन और आलस्य से उन्हें घृणा है; कोई भी काम किसी तरह से निबटा देना, जल्दबाजी से कोई काम करना और उसका क्रम उलट पलट देना, सब तरह का भद्दापन, न्यूनाधिक्य लक्ष्यभ्रष्टता, करणों और गुणों का मिथ्यारोपण और दुरुपयोग, कार्य कर्मों को बिना किये या करके बीच में ही छोड़ देना, उनके स्वभाव के लिये अप्रियकर और सर्वथा विपरीत है। जब उनका कोई कार्य हो चुकता है तब यह देख पड़ता है कि उसमें कोई बात भूली नहीं है, कोई अंश अस्थान में नहीं जा पड़ा है, न कोई चीज छूटी है, न किसी में कोई दोष रह गया है; सारा काम पक्का, दुरुस्त, पूरा और देखने ही योग्य होता है। पूरी पूर्णता के बिना उन्हें चैन नहीं मिलता और अपने सृष्टिकर्म की परिपूर्णता के लिये अनन्त काल तक श्रम करना आवश्यक हो तो उसके लिये वे प्रस्तुत रहती हैं। इस कारण माता के शक्तिविग्रहों में सबसे अधिक ये ही मनुष्य और उसके सहस्रों दोषों को परम धैर्य के साथ सहती चली आयी हैं। सदया हैं, सुस्मिता हैं, हमारे अति समीप हैं और सदा सहाय हैं, सहसा विमुख या हताश होनेवाली नहीं, मनुष्य के बार-बार चूकने पर भी उसका बराबर साथ देती हैं, पद-पद पर उनका हाथ हमें सम्हाले रहता है यदि हमारा संकल्प अव्यभिचारी हो और हम निष्कपट और सच्चे हों; कारण द्विधा मन वे नहीं बर्दाश्त कर सकतीं और कलई खोल देनेवाला उनका विद्रूप झूठे स्वांग, छल-बलकौशल, आत्मप्रवंचना और पाखंड के लिये बड़ा ही निर्मम होता है। हमारे लिये जो-जो कुछ आवश्यक है उसे जुटा देनेवाली वे माता हैं, संकटकाल में सहायता करनेवाली सुहृद् हैं, धीर-गंभीर मंत्री और मन्त्रदात्री हैं, अपने भास्वर मन्दहास्य से विषाद, अवसाद और खिन्नता के बादल वे छिन्न-भिन्न कर देती हैं, नित्य-प्राप्त सहायता की सदा याद दिलाती हैं, अंगुली-निर्देश करती रहती हैं सदा उस स्थान की ओर जहां सूर्य-प्रकाश नित्य वर्तमान है और इस तरह दृढ़ता, अचंचलता और अध्यवसाय के साथ लगी रहती हैं उसी गभीर निरवच्छिन्न प्रेरणा में जो हमें परा प्रकृति की पूर्णता की ओर आगे बढ़ाये चलती है। अन्य सब शक्तियों के कार्य की संपूर्णता इन्हीं पर अवलंबित है; क्योंकि ये ही भौतिक आधार सुदृढ़ करती हैं, अंग-प्रत्यंग को श्रमकौशल से निर्मित करती और पूरा ढांचा खड़ा करके उसे अभेद्य कवच में कस देती हैं।
I saw that whatever concentrated force there was in the church depended exclusively upon the faithful, the faith of the devotees.